प्रदीप जी से क्षमा याचना सहित। परंतु मुझे यह भी विश्वास है कि यदि आपने इसे आज लिखा होता तो ऐसा कुछ ही लिखा होता...
ए मेरी नसल के लोगों
तुम खूब जुटा लो चंदा
यह दुर्दिन है हम सब का
कोई भूख से ना मर जाए बंदा
पर मत भूलो इस धरा पर
जो हमनें ही करीं बरबादीं
कुछ याद वे गलती भी कर लो
जिनसे है ये तबाही आई
जिनसे है ये....
ए मेरी नसल के लोगों
जरा खोल के आँख तुम अपनी
बरबादियां हुईं जो अब तक
जरा याद करो वे कहानीं
ए मेरी....
लगाने थे जब हमें पौधे...
हम लगा रहे थे ए. सी.
जब-जब पड़ी जरूरत हवा की
खिड़की विहीन दीवारे बढ़ा लीं
जब बरखा आई भिगोने
आँगन में भी पत्थर चुना लीं
........
कलकल करतीं थीं जो नदियां
नालों में वो हमने बदल दीं
होते थे जहां बाग-बगीचे
कंक्रीट वहां उगा ली
अरे कैसी की ये मनमनी
अरे कैसी की ये नादानी
कुछ याद वे गलती भी कर लो
जिनसे है ये तबाही आई
जिनसे है....
(संदर्भ:- आजकल की अधिकांश प्राकृतिक आपदाऐं)
जो लोग अपना सारा बचपना बचपन में ही खर्च कर देते हैं वे अक्सर जवानी में जिंदगी खोया करते हैं और बुढ़ापे में जिंदगी ढोया करते हैं। जो लोग ताउम्र अपना बचपन बचाये रखते हैं केवल वही पूरी जिंदगी जी पाते हैं।
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Thursday 20 June 2013
ए मेरी नसल के लोगों
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