Thursday 5 January 2017

घर

वो घर अब कहाँ रहे
जिनमें जन्मा करतीं थीं
नित नई बुनावटें !
कुछ रिश्तों की
कुछ प्रेम की
कुछ लगन की
कुछ मिलन की
कुछ सबकुछ समेट कर
बन जातीं थीं ऊन की !

वो घर अब कहाँ रहे
जिनमें जन्मा करतीं थीं
अपनत्व की यादें !
कुछ भोर की
कुछ अँजोर की
कुछ राग की
कुछ अनुराग की
कुछ सबकुछ समेट कर
बन जातीं थीं परिवार की !

अब तो बच रह गईं हैं बस
चंद छत-ओ-दीवारें !
जहाँ चलती हैं बातें
कुछ विज्ञापनों की
कुछ माॅल की
कुछ नेताओं की
कुछ अभिनेताओं की
कुछ घुट-मिटकर बन जातीं हैं
बस................ 'बाजार की' !
निरी............... 'बाजार की' !!
केवल............. 'बाजार की' !!!