Tuesday 9 September 2014

दुल्हन ही दहेज है

वर व कन्या दोनों पक्षों के लोग आमने-सामने विराजमान हैं। बीच में मेज फलों-मिष्ठानों से सजी है। दोनों पक्षों के चेहरों पर उल्लास स्पष्ट झलक रहा है। जिससे प्रकट होता है कि बात पक्की हो चुकी है। तभी कन्या का पिता थोड़े संकोच के साथ दबी सी जबान खोलता है-
-"देखिए, बाकी सब बातें तो हो ही चुकी हैं , अब अगर आप लेन-देन के बारे में भी थोड़ा..........।"
इससे पहले कि वर पक्ष की ओर से कोई कुछ बोले, लड़के ने शिष्टतापूर्वक निवेदन किया,
-"माफ कीजिएगा, लेन-देन से यदि आपका  मतलब 'दहेज' से है तो याद रहे मैं दहेज के नाम पर एक खोटा सिक्का भी अपने घर नहीं जाने दूँगा। हाँ आपकी बेटी के लिये आपके दिल में जो अरमान हों, उनमें मैं किसी प्रकार बाधक भी नहीं बनूँगा। बल्कि आप जो कुछ भी करेंगें उसे सम्मान सहित शिरोधार्य करूँगा।"
इस पर कन्या के पिता ने लड़के के माता-पिता की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो उन्होंने भी स्पष्ट सा उत्तर दिया कि जो कुछ उनके बेटे ने कहा, वही उनके भी शब्द हैं। साथ ही दूसरी कई दहेज विरोधी बातें भी सुना डालीं।
लड़के के ऐसे आदर्श वचन सुनकर कन्या पक्ष के सीने फूलकर चौगुने हो गए।
कहने का मतलब यह है कि सब-कुछ खुशी-खुशी तय हुआ और निश्चित समय पर वर पक्ष धूम-धड़ाके के साथ बारात लेकर कन्या पक्ष के द्वार पर जा पहुँचा। धूम-धड़ाका भी अज़ब ही था। बाराती हाथों में दहेज विरोधी नारे लिखे बैनर, तख्ती आदि पकड़े हुए थे। बैन्ड-बाजे पर भी हर संभव जगह दहेज विरोधी पोस्टर-स्टीकर आदि चिपके हुए थे। कुल मिलाकर पूरी बारात, बारात के बजाय कोई दहेज विरोधी रैली लग रही थी।
खैर इस अदभुत बारात की चर्चा के साथ-साथ सभी की जमकर खातिरदारी हुई और हँसी-खुशी सभी रस्में भी पूरी हो गईं । विदाई के समय माहौल में एक स्वाभाविक अवसाद सा छाया हुआ था। द्वार पर "दुल्हन ही दहेज है" "दहेज लेना-देना पाप है" "दहेज लेना बेटा बेचने के समान है" आदि-आदि दहेज विरोधी पोस्टरों, बैनरों से सजी गाड़ी तैयार खड़ी थी। दुल्हे राजा पास ही दोस्तों के साथ खड़े थे तथा दुल्हन रोते-सिसकते हुए अपने परिजनों से गले मिल-मिलकर विदाई ले रही थी। उसकी सिसकियों ने माहौल में कुछ ज्यादा ही उदासी बिखेर दी थी। तभी कन्या पक्ष के पंडित जी की आवाज़ सुनाई दी, -"अरे जल्दी करो भई, दुल्हन को गाड़ी में बिठाओ।"
  -"नहीं,........." अचानक दुल्हे राजा जोर चिल्लाए। क्षण भर पहले की प्रसन्नचित्त मुखमुद्रा अचानक पत्थर के समान दृढ़ता में परिवर्तित हो गई।
-"नहीं, मैं दुल्हन हरगिज नहीं ले जाऊँगा।"
दुल्हेराजा ने उसी दृढ़ता के साथ पुनः फुँफकारते हुए कहा तो जैसे एटम बम  का धमाका हो गया हो और फिर चारों ओर एक नीरव सन्नाटा छा गया। जैसा शायद परमाणु बम गिरने के बाद हिरोशिमा में छाया होगा।
दुल्हन की सिस्कियां गायब। क्षणभर पहले आँखों से अनवरत बह रहे आँसू ऐसे ही गायब हो गए जैसे वीडियो कैसेट प्ले बैक करने पर बाल्टी का पानी वापस नल में जा समाता है। सभी आवाक खड़े एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
कुछ क्षणों बाद थोड़ी खुसर-पुसर शुरू हुई तो कन्या के पिता ने साहस बटोर कर दुल्हे के पास जाकर घिघियाते हुए पूछा, -"यह क्या कह रहे हो बेटा, हमसे कुछ गलती हो गई हो तो.......।"
कहते-कहते उनकी सिसकी बँध गई।
-"देखिये, रोने-धोने की कोई जरूरत नहीं, मैंने पहले ही बड़े स्पष्ट रूप से आपसे कह दिया था कि मैं दहेज के नाम पर कुछ भी स्वीकार नहीं करूँगा।"
-"लेकिन बेटा, हमनें भी तो सबकुछ तुम्हारे कहे अनुसार ही तो किया है।" कन्या के पिता ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।
-"यह देखिए, इतने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है 'दुल्हन' ही 'दहेज' है। अब आप ही बताईये, आपने हमारा कहा कहां किया।" दुल्हे ने कार पर लगा बैनर दिखाते हुए उसी तीव्रता के साथ कहा।
दुल्हे के इन शब्दों को सुनकर सभी के दिमाग झन्ना उठे। परंतु किसी को नहीं सूझ रहा था कि उसे कैसे समझाएं। अचानक दुल्हन अपनी सखियों व अन्य लोगों को दूर धकेलते हुए दुल्हेराजा की ओर लपकी।फिर उसकी आँखों में आँखें डालकर सिंहनी की भाँति दहाड़ते हुए बोली, -"मैं कोई दहेज नहीं आपकी पत्नी हूँ।"
-"तो फिर आओ घर चलें। मैनें तो दहेज ले जाने से इन्कार किया था, पत्नी को थोड़े ही।" दुल्हे ने होठों पर शरारतपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए दुल्हन के कंधों पर हाथ रखकर प्यार से कहा।

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