Tuesday 18 May 2021

चोटी

वैसे तो चोटी के कई पर्यायवाची हैं, जैसे - शिखा, शिखर, शीश, शीर्ष, फुनगी, चुटिया आदि आदि। यह सभी नाम या तो किसी पर्वत-वृक्ष या प्राणि आदि की चोटी के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं या फिर किसी नेता-अभिनेता अथवा किसी अन्य वस्तु की श्रेणी प्रकट करते हैं। परन्तु जिस चोटी की बात हम कर रहे हैं, उसका इन सब से कुछ लेना-देना नहीं। क्योंकि वह तो एक नन्ही-मुन्नी छोटी बच्ची है नाम है "चोटी"। आयु यही कोई आठ-दस वर्ष.....किन्तु बहुत ही चतुर, साहसी और निडर......।

 चोटी अपनी नानी के साथ गाँव में रहती थी। नानी के साथ ही खेतों में काम करती, नानी के हाथ से खाना खाना खाती और नानी के साथ ही चिपक कर सो जाती। चोटी उस समय तीन वर्ष की ही थी, जब उसकी माँ उसे लेकर नानी के पास आई थी और किसी कारणवश उसे वहीं छोड़कर अपने भाई के साथ ससुराल लौट गई। किन्तु उनके पहुँचते ही वहाँ एक भयानक बाढ़ आई। जिसमें चोटी के माता-पिता, मामा, दादा-दादी समेत पूरा गाँव बह गया। तब से चोटी यहीं अपनी नानी के साथ रह रही थी।

चोटी पूरे गाँव की लाडली थी। मजाल क्या कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसके पास से उसे अनदेखा कर बिना कुछ बोले गुजर जाए। यदि कभी किसी ने ऐसा दुःसाहस किया तो उसके साथ-साथ पूरे गाँव वालों की शामत आ जाती। और फिर जब तक वह व्यक्ति उसके घर आकर स्वयं उसे न मना ले, तब तक वह ना किसी से कुछ बोलती न खाती......बस यही कह कर रोती रहती - "सब लोग मुझसे जलते हैं, मैं भी चली जाऊँगी माँ के पास....तुम सब रहना फिर खुशी-खुशी.......।"

नानी उसी समय मलखान सिंह जिन्हें गाँव में सभी खान दादा कहते थे, को बुलाती। वे भी काफी देर तक चोटी को मनाते-पुचकारते। तब कहीं वह बताती कल्लू मामा मुझसे बात नहीं करते। वे मुझसे जलते हैं। मुझे नहीं रहना यहाँ। मुझे भी माँ के पास भेज दो। 

खान दादा ने तुरन्त कल्लू को बुलवा भेजा और तब कल्लू ने आकर 'लाडली बिटिया' कहकर चोटी को मनाया। काफी देर मनुहार करने और झूठी-सच्ची कसमें खाने पर वह उठी, फिर कल्लू ने ही अपनी गोद में बिठा कर उसे खाना खिलाया। तब कहीं उसकी सिसकियाँ बंद हुईं।

किसी और बात पर उसे कभी किसी ने झगड़ते नहीं देखा। गाँव भर के सभी बच्चों से उसकी मित्रता थी। हाँ, उसका एक घोर शत्रु भी था और वह थी - जंगली बिल्ली। 

जंगली बिल्लियों के साथ उसका वैर कुछ इस प्रकार हुआ -

जब वह लगभग पाँच वर्ष की ही थी, एक दिन शाम के समय नानी के साथ खेत से लौट रही थी। अचानक एक जंगली बिल्ली उनके रास्ते में आ गई। नानी ने जल्दी से चोटी को अपने पीछे की ओर धकेल दिया और अपना डंडा दिखाकर जंगली बिल्ली को भगाने की चेष्टा की। परन्तु बिल्ली भागने के बजाय गुर्राने लगी। नानी ने दोबारा डंडा फटकारा तो वह नानी पर ही झपट पड़ी। घबराहट में डंडा नानी के हाथ से छूट गया और वह गिर पड़ी। बिल्ली नानी से चिपट गई और उसे भँभोड़ने लगी। नानी ने किसी प्रकार उसे दूर छिटका ही था कि ठीक उसी समय चोटी ने नानी का डंडा उठाया और जैसे ही बिल्ली दोबारा नानी की ओर झपटी, चोटी ने दोनों हाथों से डंडा पकड़कर हवा में उसकी ओर घुमा दिया। तड़ाक की आवाज हुई और बिल्ली मिट्टी में कलाबाजियाँ खाने लगी। तड़-तड़ा-तड़.....दो-तीन आवाजें और हुई और बिल्ली का शरीर शान्त हो गया। 

गाँव में पहुँचते ही चोटी सीधे खान दादा के पास पहुँची। साँस फूल रही थी।
- "खान दादा, खान दादा......"
- "क्या बात है बिटिया?" 
- "खान दादा, कल मेरे लिए तीन छुरियाँ बनाना।" 
- "पर तुम छुरियों का करोगी क्या और वह भी तीन-तीन छुरी!? दो छुरियाँ तो तुम्हारी नानी ने अभी कुछ दिन पहले बनवाई थीं!" 
- "अरे वह सब्जी काटने वाली छुरियाँ नहीं दादा, इत्ती लंबी-लंबी छुरियाँ चाहिए मुझे.....।" अपना हाथ दिखाते हुए चोटी ने कहा। "पता है आज एक जंगली बिल्ली ने खेत पर नानी को काट लिया। वह तो मैंने डंडे से उसे मार डाला, नहीं तो आज वह नानी को ही मार डालती।"
- "अच्छा........!" खान दादा उसकी बातों को झूठ समझकर हँसते हुए बोले।
- "आप कल मेरे लिए छुरियाँ बना देना। मैं सारी जंगली बिल्लियों को मार डालूँगी।"

उसी समय नानी भी वहाँ आ पहुँची और सारी बातें खान दादा को बतलायीं तो उन्होंने चोटी को प्यार से गले लगा लिया। फिर चोटी को समझाते हुए बोले, " बिटिया, इन जंगली बिल्लियों को तो हम मरवा देंगे। तुम चिन्ता मत करो।"

परंतु चोटी ऐसे कहाँ मानने वाली थी। बोली, "आप मरवाये या न मरवायें, मुझे कल छुरियाँ चाहिए। मैं उन्हें जिन्दा नहीं छोडूंगी।" 

अन्ततः खान दादा को कहना ही पड़ा कि ठीक है बिटिया मैं कल छुरियाँ बना दूँगा। 

अगले दिन चोटी फिर खान दादा की दुकान पर आ धमकी तो उन्होंने बहाना बना दिया कि बिटिया आज तो मेरे पास बढ़िया लोहा ही नहीं था। जंगली बिल्लियों को मारना है ना, इसलिए बहुत पैनी छुरियाँ बनाने के लिए बढ़िया किस्म का लोहा चाहिए। कल बाजार से लाकर बना दूँगा। 

कई दिन तक खान दादा चोटी को इसी प्रकार बहलाते रहे। वह सोच रहे थे कि धीरे-धीरे चोटी बिल्लियों वाली बात भूल जाएगी। वैसे भी इतनी छोटी बच्ची के हाथ में छुरियाँ देना ठीक भी तो नहीं लग रहा था। तनिक में अपना हाथ-पैर ही काट ले तो......। 

शीध्र ही चोटी भी जान गई कि खान दादा उसे बहला रहे हैं। अतः एक दिन सुबह-सुबह जब उन्होंने अपनी दुकान में काम शुरू किया तो चोटी वहाँ पहुँच गई। खान दादा उस समय कल्लू की खुरपी ठीक कर रहे थे और भोला हल ठीक करवाने के लिए बैठा था। चोटी ने आकर खुर्पी छीन ली और बोली, " दादा, आज पहले मेरी छुरियाँ बनाईये। बाकी सब काम बाद में होंगे......पता है, कल फिर एक बिल्ली रामू भैया को देखकर गुर्राने लगी थी। वह तो उन्होंने ढेला मार के उसे भगा दिया।"

सभी लोगों ने उसे समझाया कि वे स्वयं सारी जंगली बिल्लियों को मार देंगे। परन्तु चोटी नहीं मानी और वहीं बैठ गयी।

खान दादा समझ गए कि आज बला टलने वाली नहीं है। अतः उन्होंने तुरन्त छुरियाँ बनाने का काम शुरू कर दिया। दोपहर तक छुरियाँ बनकर तैयार तो हो गयीं परन्तु खान दादा ने चोटी से कहा कि कल शाम से वे उसे छुरियाँ चलाना सिखायेंगे और जब वह ठीक प्रकार चलाना सीख जाएगी तभी उसे छुरियाँ अपने पास रखने के लिए देंगे। 

चोटी मान गयी। खान दादा ने भी सोचा कि बच्ची है, क्या छुरियाँ चलाएगी......एक-दो बार उल्टी-सीधी फैंकेगी तो कह दूँगा कि अभी वह बहुत छोटी है। जब बड़ी हो जायेगी तो सिखा दूँगा। किन्तु खान दादा का ऐसा सोचना बिल्कुल गलत निकला। क्योंकि चार-पाँच दिन में ही चोटी अच्छा-खासा निशाना लगाना सीख गयी थी और खान दादा को विवश होकर तीनों छुरियाँ चोटी को सौंपनी पड़ीं। तब उन्होंने उसे कमर में बांधने के लिए एक पेटी भी दी। जिसने छुरियों को लटकाने की अवस्था भी थी।

बस फिर क्या था, अब तो जब भी वह खेतों की ओर जाती तो पेटी कमर में बाँध कर छुरियां उसमें लगा लेती। पिछले चार-पाँच वर्षों में उसने इन्हीं तीन छुरियों की सहायता से पचासों जंगली बिल्लियों का काम तमाम कर दिया था। अब तो उसका निशाना भी बिल्कुल अचूक हो चुका था। नानी तथा खान दादा ने उसे कई बार बहुत समझाया कि नानी पर हमला को एक जंगली बिल्ली ने ही किया था और उसे उसने उसी समय मार डाला था, फिर वह दूसरी निर्दोष बिल्लियों को सजा क्यों दे रही है। परन्तु चोटी पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसे तो बस एक ही धुन सवार थी कि वह जंगली बिल्लियों को मिटाकर ही रहेगी। 

परन्तु अब काफी दिनों से उसे कोई शिकार नहीं मिल रहा था। क्योंकि जंगली बिल्लियों में उसका इतना आतंक फैल चुका था कि वे उसकी गंध मिलते ही वे नौ दो ग्यारह हो जाती थी। 

बरसात का मौसम था। कई दिन से लगातार हल्की-हल्की वर्षा हो रही थी। शाम के समय जब मौसम कुछ साफ हुआ तो भोला में सोचा कि चलो खेत पर घूम आए। वह हाथ में एक हल्की सी छड़ी लेकर जंगल की ओर चल दिया। हल्की-हल्की वर्षा होने से चारों ओर हरियाली छाई हुई थी। पक्षी भी मस्ती में इधर-उधर उड़ते कलरव कर रहे थे। भोला का मन भी खेतों में लहलाती फसलों को देख कर खुशी से झूम उठा। वह खुशी-खुशी गाँव की ओर लौटने लगा तो अचानक झाड़ियों से निकलकर एक भालू का बच्चा उस पर झपट पड़ा। भोला ने स्फुर्ती के साथ अपना बचाव करते हुए उस पर छड़ी से प्रहार कर दिया कनपटी पर छड़ी पड़ते ही बच्चा जोर से चिल्लाया और भूमि पर गिर पड़ा। उसी समय भोला ने देखा कि सामने से एक शक्तिशाली भालू तेजी से दौड़ा चला आ रहा है। वह तुरन्त सिर पर पैर रखकर गाँव की ओर भाग खड़ा हुआ। भालू ने कुछ दूर तक उसका पीछा किया और फिर अपने बच्चे के पास लौट आया।

भोला ने गाँव में पहुँचते ही ढिंढोरा पिटवा दिया कि कोई भी व्यक्ति जंगल की ओर न जाए और न ही अपने पशुओं को जाने दे। क्योंकि जंगल में एक भी भालू आया हुआ है। 

उसी रात जोरदार वर्षा हुई। सुबह लोगों ने देखा कि चारों ओर पानी ही पानी भरा हुआ है। किन्तु अब मौसम बिल्कुल साफ था और प्रत्येक व्यक्ति की भगवान से बस यही प्रार्थना थी कि भगवान, अभी तक तो सब ठीक है परंतु अब और वर्षा नहीं चाहिए........। 

शाम के समय कुछ बच्चे खेलते-खेलते गाँव के बाहर तालाब पर पहुंच गए। बच्चे हो-हल्ला मचा कर मस्ती से खेल रहे थे कि उसी समय भालू वहाँ आ पहुँचा। बच्चों ने देखा तो वे डर गए और भाग खड़े हुए। परंतु तब तक भालू ने एक बच्चे को दबोच लिया था। बाकी बच्चे रोते-चीखते गाँव में पहुँचे। परन्तु जब तक गाँव वाले हथियार लेकर वहाँ पहुँचे, तब तक भालू वहाँ से जा चुका था। वहाँ केवल बच्चे की लाश के टुकड़े पड़े थे। इस घटना से पूरे गाँव में आतंक फैल गया। चोटी को भी रात भर नींद न आयी। वह उस बच्चे के बारे में ही सोचती रही। अंत में उसने निश्चय किया कि कल वह उस भालू को ही मार डालेगी।

उसने तो पहले कभी भालू देखा ही नहीं था। अतः उसे पता ही नहीं था कि वह होता कैसा है, कितना शक्तिशाली, कितना भयंकर होता है। अतः सुबह होते ही उसने नानी से पूछा, "नानी, भालू कैसा होता है?"
 
- "भालू तो बहुत लंबा-चौड़ा-तगड़ा होता है। उसके लंबे-लंबे काले बाल होते हैं। नाखून भी बहुत लम्बे और पैने होते हैं। दाँत भी बहुत बड़े बड़े होते हैं।" नानी ने थोड़ी डरावनी सी रूपरेखा बनाते हुए कहा।

परन्तु चोटी ऐसे कहाँ डरने वाली थी। उसने सोचा कि ज्यादा से ज्यादा जंगली बिल्ली से दो गुना बड़ा होता होगा। यदि एक छुरी से न मारा तो मेरी दूसरी छुरी नहीं झेल पायेगा। इसी निश्चय के साथ उसने तीनों छुरियाँ बेल्ट में लगाई और अवसर मिलते ही जंगल की ओर निकल गयी।

 पहले वह उसी जगह पहुँची जहाँ भालू सबसे पहले भोला को मिला था। काफी देर आसपास ढूँढा परन्तु वहाँ कोई नहीं था। दोपहर हो रही थी किन्तु चोटी को ना भूख थी ना प्यास.....किसी तरह वो भालू मिल जाए तो बस.......।

गाँव से काफी दूर एक छोटी सी नहर थी। ढूँढते-ढूँढते चोटी नहर के किनारे पहुँच गयी। रुक कर थोड़ा पानी पिया और फिर किनारे-किनारे चलने लगी। अभी वह थोड़ी दूर ही चली थी कि पास की झाड़ियों के पीछे से भालू का बच्चा निकला और चोटी पर झपट पड़ा। चोटी ने सावधानी से उसके वार को बचा दिया और फिर बड़ी स्फूर्ती के साथ एक छुरी जोर से उसकी ओर फैंक दी। निशाना तो अचूक था ही, छुरी सीधे भालू के बच्चे के सीने में बाँयी और चार-छः इंच गहरी घुस गई। बच्चा चीखा और धराशायी हो गया। चोटी ने उसे ध्यान से देखा और सोचा की यह भालू ही हो सकता है। परन्तु नानी तो बहुत बड़ा और तगड़ा बता रही थी! गाँव वाले भी बिल्कुल डरपोक हैं। ऐसे ही किसी से भी डरने लगते हीं।

अभी वह खड़ी यही सोच-विचार कर रही थी कि उसे एक भयानक गर्जना का स्वर सुनाई दिया। उसने नजर घुमाई तो क्या देखती है कि सामने से एक विशालकाय काली चट्टान सी आकृति उसी ओर दौड़ी चली आ रही है। अब चोटी को समझ आया कि जिसे उसने मारा है, वह तो भालू का बच्चा है। भालू तो सामने दौड़ा चला आ रहा है। वह आठ-दस कदम पीछे हट गई और निडरता पूर्वक एक छुरी निकालकर हाथ में ले ली। भालू अकर पहले अपने बच्चे के पास रुका। उसे सूँघा। किन्तु बच्चे को मरा हुआ देखकर वह जोर से गरजा,  फिर जैसे ही वह चोटी की ओर घूमा चोटी ने अपने हाथ की छुरी तेजी से उसकी ओर उछाल दी। अगले ही पल छुरी भालू की दाँयी जाँघ में घुस गयी। भालू दर्द के मारे जोर से सीखा और भूमि पर लौटने लगा। कुछ ही देर में छुरी जाँघ से निकल गई और घाव से खून की एक मोटी धार बह निकली। भालू गरजकर फिर से चोटी की ओर लपका। चोटी ने भालू का यह उग्र रूप देखा तो कुछ डर गई और तेजी से एक तरफ दौड़ पड़ी। भालू भी लंगड़ाता हुआ उसके पीछे भागा। चोटी को सामने एक पेड़ दिखाई दिया। वह जल्दी से उसकी और लपकी। परन्तु भालू उसके बिल्कुल निकट आ चुका था। उसने अपना पंजा फैलाकर चोटी पर पीछे से वार किया तो उसके फ्रॉक का पिछला हिस्सा जोकि उसके दौड़ने के कारण पीछे हवा में लहरा रहा था, पंजे में फँस गया। चोटी को जोर का झटका लगा। वह गिरने से बाल-बाल बची। कपड़े का जो टुकड़ा भालू के पंजे में आ गया था वह कुछ देर रुक कर उसी को भँभोड़ता रहा और फिर चोटी के पीछे दौड़ा। 
चोटी तब तक पेड़ पर चढ़ चुकी थी। भालू पेड़ के नीचे आकर जोर से गरजा और फिर पेड़ पर चढ़ने लगा। अब चोटी थोड़ी घबरायी। उसने नीचे देखा तो कम से कम पन्द्रह फुट की ऊँचाई थी। जहाँ से कूदने पर हड्डियों का कचूमर निकलना तो निश्चित था। 

उसने फिर साहस जुटाया और तीसरी छुरी हाथ में लेकर एक डाल पर बैठ गई। भालू धीरे-धीरे पेड़ पर चढ़ा और सूँघते-सूँघते उसी डाल की ओर बढ़ने लगा। जाँघ से अभी भी खून की मोटी धार बह रही थी। वह धीरे-धीरे सँभलता हुआ चोटी के बिल्कुल पास आ गया। चोटी उसकी आँखों में देख रही थी, जो उसे जो उस समय दहकते हुए लाल अंगारों जैसी प्रतीत हो रही थी। उसका हृदय बुरी तरह धड़क रहा था। छुरी उसने हाथों में कस ली। भालू ने आगे बढ़कर अपने भयानक जबड़े चोटी की ओर खोले तो चोटी थोड़ा ओर पीछे हट गयी। भालू ने जैसे ही जबड़ा पुनः चोटी की ओर बढ़ाया तो चोटी ने दोनों हाथों से छुरी का एक भरपूर वार उसकी खोपड़ी पर कर दिया।

खोपड़ी में छुरी लगते ही भालू एक बार फिर जोर से चीखा। उसके पैर उखड़ गए और वह चकरा कर नीचे गिर पड़ा। भालू के अचानक गिरने से पेड़ की डाल जोर से हिल गई, जिससे चोटी भी अपने आप को नहीं सँभाल पायी और वह भी नीचे गिरने लगी। उसकी आँखें बन्द हो गई थीं। अचानक उसे लगा जैसे वह किसी नरम गद्दे पर आकर गिरी हो। उसने हाथ से टटोला तो लगा जैसे नीचे लंबी लंबी नर्म घास है। आंखें खोलकर देखा तो चीख निकल गई.......वह ठीक भालू के ऊपर आकर गिरी थी। मारे दहशत के वह झटके से कई फुट ऊपर उछल पड़ी और तेजी से एक ओर भागी। परन्तु आँखों के आगे अँधेरा छा गया और वह चक्कर खाकर गिर पड़ी। 

चोटी को होश आया तो उसे फिर अपने सिर के नीचे वही नरम गद्दा सा अनुभव हुआ। वह जोर से चीख पड़ी.....उसी समय उसके कानों में नानी का प्यार भरा स्वर सुनायी पड़ा, - "चोटी!!!......आँखें खोल बिटिया.....।"
चोटी ने आँखें खोलीं तो देखा कि गाँव के अनेक लोग वहाँ खड़े हैं। सामने सूरज धीरे-धीरे अस्त हो रहा था। उसने गर्दन घुमायी तो देखा, नानी ने उसे अपनी गोद में लिटा रखा था।
-"नानी....." कहते हुए वह नानी के सीने से चिपक गई।
- "पगली, तुझे कुछ हो जाता तो......" नानी ने प्यार से  उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
- "कैसी बातें करती हो नानी.....खान दादा की छुरियों के होते वह भालू भला मेरा क्या बिगाड़ सकता था।" नानी की आंखों में छलक आए आँसुओं को पौंछते हुए चोटी ने कहा। 

खान दादा पास ही खड़े हुए थे। उन्होंने चोटी को गोद में उठा लिया और प्यार से पीठ सहलाते हुए बोले - 

- "बिटिया, जो काम आज तूने किया है, गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता था।"

कल्लू का छोटा बेटी मन्नू भी उस समय वहीं था। चोटी के पास आकर धीरे से बोला,"चोटी दीदी, चोटी दीदी...तुम्हे भालू से डर नहीं लगा?"
- "नहीं, बिल्कुल नहीं....." चोटी ने एकदम उत्तर दिया।
- "तो फिर अभी-अभी चीख क्यों रही थी......?" रामू ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
- "अरे रामू भैया, वो तो मैं तुम लोगों को डरा रही थी......" कहते हुए चोटी अपने उसी मस्ताने अंदाज में गाँव की ओर चल पड़ी। दूसरे सभी लोग भी उसके साथ हँसते हुए गाँव की ओर चल दिए।