Friday, 11 August 2023

दो पंछी

इक डाल से दो पंछी गिरे
इक स्वर्ग पड़ा इक नरक पड़ा
जैसा जिसने करम करा
वैसा उसको परिणाम मिला ---2
इक डाल से.....
.
इक बाग में दो अंकुर पले
इक पेड़ बना इक झाड़ बना
पेड़ पर चहचहाईं चिडियां
झाड़ में इक सर्प पला ----2
इक डाल से......
.
पेड़ ऊँचा ओर ऊँचा बढ़ा
झाड़ ने रूप विकराल धरा
पेड़ फल-फलियों से लदा
झाड़ में था बस विष ही भरा ----2
इक डाल से......
.
हल लिये बाग में इक वीर घुसा
थोड़ी लपटें और धुँआ उठा
लपटें पेड़ को छू न सकीं
झाड़ खुद भी जला संग सर्प जला ----2
इक डाल से दो पंछी गिरे
इक स्वर्ग पड़ा इक नरक पड़ा
जैसा जिसने करम करा
वैसा उसको परिणाम मिला -2
इक डाल से....

Tuesday, 18 May 2021

चोटी

वैसे तो चोटी के कई पर्यायवाची हैं, जैसे - शिखा, शिखर, शीश, शीर्ष, फुनगी, चुटिया आदि आदि। यह सभी नाम या तो किसी पर्वत-वृक्ष या प्राणि आदि की चोटी के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं या फिर किसी नेता-अभिनेता अथवा किसी अन्य वस्तु की श्रेणी प्रकट करते हैं। परन्तु जिस चोटी की बात हम कर रहे हैं, उसका इन सब से कुछ लेना-देना नहीं। क्योंकि वह तो एक नन्ही-मुन्नी छोटी बच्ची है नाम है "चोटी"। आयु यही कोई आठ-दस वर्ष.....किन्तु बहुत ही चतुर, साहसी और निडर......।

 चोटी अपनी नानी के साथ गाँव में रहती थी। नानी के साथ ही खेतों में काम करती, नानी के हाथ से खाना खाना खाती और नानी के साथ ही चिपक कर सो जाती। चोटी उस समय तीन वर्ष की ही थी, जब उसकी माँ उसे लेकर नानी के पास आई थी और किसी कारणवश उसे वहीं छोड़कर अपने भाई के साथ ससुराल लौट गई। किन्तु उनके पहुँचते ही वहाँ एक भयानक बाढ़ आई। जिसमें चोटी के माता-पिता, मामा, दादा-दादी समेत पूरा गाँव बह गया। तब से चोटी यहीं अपनी नानी के साथ रह रही थी।

चोटी पूरे गाँव की लाडली थी। मजाल क्या कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसके पास से उसे अनदेखा कर बिना कुछ बोले गुजर जाए। यदि कभी किसी ने ऐसा दुःसाहस किया तो उसके साथ-साथ पूरे गाँव वालों की शामत आ जाती। और फिर जब तक वह व्यक्ति उसके घर आकर स्वयं उसे न मना ले, तब तक वह ना किसी से कुछ बोलती न खाती......बस यही कह कर रोती रहती - "सब लोग मुझसे जलते हैं, मैं भी चली जाऊँगी माँ के पास....तुम सब रहना फिर खुशी-खुशी.......।"

नानी उसी समय मलखान सिंह जिन्हें गाँव में सभी खान दादा कहते थे, को बुलाती। वे भी काफी देर तक चोटी को मनाते-पुचकारते। तब कहीं वह बताती कल्लू मामा मुझसे बात नहीं करते। वे मुझसे जलते हैं। मुझे नहीं रहना यहाँ। मुझे भी माँ के पास भेज दो। 

खान दादा ने तुरन्त कल्लू को बुलवा भेजा और तब कल्लू ने आकर 'लाडली बिटिया' कहकर चोटी को मनाया। काफी देर मनुहार करने और झूठी-सच्ची कसमें खाने पर वह उठी, फिर कल्लू ने ही अपनी गोद में बिठा कर उसे खाना खिलाया। तब कहीं उसकी सिसकियाँ बंद हुईं।

किसी और बात पर उसे कभी किसी ने झगड़ते नहीं देखा। गाँव भर के सभी बच्चों से उसकी मित्रता थी। हाँ, उसका एक घोर शत्रु भी था और वह थी - जंगली बिल्ली। 

जंगली बिल्लियों के साथ उसका वैर कुछ इस प्रकार हुआ -

जब वह लगभग पाँच वर्ष की ही थी, एक दिन शाम के समय नानी के साथ खेत से लौट रही थी। अचानक एक जंगली बिल्ली उनके रास्ते में आ गई। नानी ने जल्दी से चोटी को अपने पीछे की ओर धकेल दिया और अपना डंडा दिखाकर जंगली बिल्ली को भगाने की चेष्टा की। परन्तु बिल्ली भागने के बजाय गुर्राने लगी। नानी ने दोबारा डंडा फटकारा तो वह नानी पर ही झपट पड़ी। घबराहट में डंडा नानी के हाथ से छूट गया और वह गिर पड़ी। बिल्ली नानी से चिपट गई और उसे भँभोड़ने लगी। नानी ने किसी प्रकार उसे दूर छिटका ही था कि ठीक उसी समय चोटी ने नानी का डंडा उठाया और जैसे ही बिल्ली दोबारा नानी की ओर झपटी, चोटी ने दोनों हाथों से डंडा पकड़कर हवा में उसकी ओर घुमा दिया। तड़ाक की आवाज हुई और बिल्ली मिट्टी में कलाबाजियाँ खाने लगी। तड़-तड़ा-तड़.....दो-तीन आवाजें और हुई और बिल्ली का शरीर शान्त हो गया। 

गाँव में पहुँचते ही चोटी सीधे खान दादा के पास पहुँची। साँस फूल रही थी।
- "खान दादा, खान दादा......"
- "क्या बात है बिटिया?" 
- "खान दादा, कल मेरे लिए तीन छुरियाँ बनाना।" 
- "पर तुम छुरियों का करोगी क्या और वह भी तीन-तीन छुरी!? दो छुरियाँ तो तुम्हारी नानी ने अभी कुछ दिन पहले बनवाई थीं!" 
- "अरे वह सब्जी काटने वाली छुरियाँ नहीं दादा, इत्ती लंबी-लंबी छुरियाँ चाहिए मुझे.....।" अपना हाथ दिखाते हुए चोटी ने कहा। "पता है आज एक जंगली बिल्ली ने खेत पर नानी को काट लिया। वह तो मैंने डंडे से उसे मार डाला, नहीं तो आज वह नानी को ही मार डालती।"
- "अच्छा........!" खान दादा उसकी बातों को झूठ समझकर हँसते हुए बोले।
- "आप कल मेरे लिए छुरियाँ बना देना। मैं सारी जंगली बिल्लियों को मार डालूँगी।"

उसी समय नानी भी वहाँ आ पहुँची और सारी बातें खान दादा को बतलायीं तो उन्होंने चोटी को प्यार से गले लगा लिया। फिर चोटी को समझाते हुए बोले, " बिटिया, इन जंगली बिल्लियों को तो हम मरवा देंगे। तुम चिन्ता मत करो।"

परंतु चोटी ऐसे कहाँ मानने वाली थी। बोली, "आप मरवाये या न मरवायें, मुझे कल छुरियाँ चाहिए। मैं उन्हें जिन्दा नहीं छोडूंगी।" 

अन्ततः खान दादा को कहना ही पड़ा कि ठीक है बिटिया मैं कल छुरियाँ बना दूँगा। 

अगले दिन चोटी फिर खान दादा की दुकान पर आ धमकी तो उन्होंने बहाना बना दिया कि बिटिया आज तो मेरे पास बढ़िया लोहा ही नहीं था। जंगली बिल्लियों को मारना है ना, इसलिए बहुत पैनी छुरियाँ बनाने के लिए बढ़िया किस्म का लोहा चाहिए। कल बाजार से लाकर बना दूँगा। 

कई दिन तक खान दादा चोटी को इसी प्रकार बहलाते रहे। वह सोच रहे थे कि धीरे-धीरे चोटी बिल्लियों वाली बात भूल जाएगी। वैसे भी इतनी छोटी बच्ची के हाथ में छुरियाँ देना ठीक भी तो नहीं लग रहा था। तनिक में अपना हाथ-पैर ही काट ले तो......। 

शीध्र ही चोटी भी जान गई कि खान दादा उसे बहला रहे हैं। अतः एक दिन सुबह-सुबह जब उन्होंने अपनी दुकान में काम शुरू किया तो चोटी वहाँ पहुँच गई। खान दादा उस समय कल्लू की खुरपी ठीक कर रहे थे और भोला हल ठीक करवाने के लिए बैठा था। चोटी ने आकर खुर्पी छीन ली और बोली, " दादा, आज पहले मेरी छुरियाँ बनाईये। बाकी सब काम बाद में होंगे......पता है, कल फिर एक बिल्ली रामू भैया को देखकर गुर्राने लगी थी। वह तो उन्होंने ढेला मार के उसे भगा दिया।"

सभी लोगों ने उसे समझाया कि वे स्वयं सारी जंगली बिल्लियों को मार देंगे। परन्तु चोटी नहीं मानी और वहीं बैठ गयी।

खान दादा समझ गए कि आज बला टलने वाली नहीं है। अतः उन्होंने तुरन्त छुरियाँ बनाने का काम शुरू कर दिया। दोपहर तक छुरियाँ बनकर तैयार तो हो गयीं परन्तु खान दादा ने चोटी से कहा कि कल शाम से वे उसे छुरियाँ चलाना सिखायेंगे और जब वह ठीक प्रकार चलाना सीख जाएगी तभी उसे छुरियाँ अपने पास रखने के लिए देंगे। 

चोटी मान गयी। खान दादा ने भी सोचा कि बच्ची है, क्या छुरियाँ चलाएगी......एक-दो बार उल्टी-सीधी फैंकेगी तो कह दूँगा कि अभी वह बहुत छोटी है। जब बड़ी हो जायेगी तो सिखा दूँगा। किन्तु खान दादा का ऐसा सोचना बिल्कुल गलत निकला। क्योंकि चार-पाँच दिन में ही चोटी अच्छा-खासा निशाना लगाना सीख गयी थी और खान दादा को विवश होकर तीनों छुरियाँ चोटी को सौंपनी पड़ीं। तब उन्होंने उसे कमर में बांधने के लिए एक पेटी भी दी। जिसने छुरियों को लटकाने की अवस्था भी थी।

बस फिर क्या था, अब तो जब भी वह खेतों की ओर जाती तो पेटी कमर में बाँध कर छुरियां उसमें लगा लेती। पिछले चार-पाँच वर्षों में उसने इन्हीं तीन छुरियों की सहायता से पचासों जंगली बिल्लियों का काम तमाम कर दिया था। अब तो उसका निशाना भी बिल्कुल अचूक हो चुका था। नानी तथा खान दादा ने उसे कई बार बहुत समझाया कि नानी पर हमला को एक जंगली बिल्ली ने ही किया था और उसे उसने उसी समय मार डाला था, फिर वह दूसरी निर्दोष बिल्लियों को सजा क्यों दे रही है। परन्तु चोटी पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसे तो बस एक ही धुन सवार थी कि वह जंगली बिल्लियों को मिटाकर ही रहेगी। 

परन्तु अब काफी दिनों से उसे कोई शिकार नहीं मिल रहा था। क्योंकि जंगली बिल्लियों में उसका इतना आतंक फैल चुका था कि वे उसकी गंध मिलते ही वे नौ दो ग्यारह हो जाती थी। 

बरसात का मौसम था। कई दिन से लगातार हल्की-हल्की वर्षा हो रही थी। शाम के समय जब मौसम कुछ साफ हुआ तो भोला में सोचा कि चलो खेत पर घूम आए। वह हाथ में एक हल्की सी छड़ी लेकर जंगल की ओर चल दिया। हल्की-हल्की वर्षा होने से चारों ओर हरियाली छाई हुई थी। पक्षी भी मस्ती में इधर-उधर उड़ते कलरव कर रहे थे। भोला का मन भी खेतों में लहलाती फसलों को देख कर खुशी से झूम उठा। वह खुशी-खुशी गाँव की ओर लौटने लगा तो अचानक झाड़ियों से निकलकर एक भालू का बच्चा उस पर झपट पड़ा। भोला ने स्फुर्ती के साथ अपना बचाव करते हुए उस पर छड़ी से प्रहार कर दिया कनपटी पर छड़ी पड़ते ही बच्चा जोर से चिल्लाया और भूमि पर गिर पड़ा। उसी समय भोला ने देखा कि सामने से एक शक्तिशाली भालू तेजी से दौड़ा चला आ रहा है। वह तुरन्त सिर पर पैर रखकर गाँव की ओर भाग खड़ा हुआ। भालू ने कुछ दूर तक उसका पीछा किया और फिर अपने बच्चे के पास लौट आया।

भोला ने गाँव में पहुँचते ही ढिंढोरा पिटवा दिया कि कोई भी व्यक्ति जंगल की ओर न जाए और न ही अपने पशुओं को जाने दे। क्योंकि जंगल में एक भी भालू आया हुआ है। 

उसी रात जोरदार वर्षा हुई। सुबह लोगों ने देखा कि चारों ओर पानी ही पानी भरा हुआ है। किन्तु अब मौसम बिल्कुल साफ था और प्रत्येक व्यक्ति की भगवान से बस यही प्रार्थना थी कि भगवान, अभी तक तो सब ठीक है परंतु अब और वर्षा नहीं चाहिए........। 

शाम के समय कुछ बच्चे खेलते-खेलते गाँव के बाहर तालाब पर पहुंच गए। बच्चे हो-हल्ला मचा कर मस्ती से खेल रहे थे कि उसी समय भालू वहाँ आ पहुँचा। बच्चों ने देखा तो वे डर गए और भाग खड़े हुए। परंतु तब तक भालू ने एक बच्चे को दबोच लिया था। बाकी बच्चे रोते-चीखते गाँव में पहुँचे। परन्तु जब तक गाँव वाले हथियार लेकर वहाँ पहुँचे, तब तक भालू वहाँ से जा चुका था। वहाँ केवल बच्चे की लाश के टुकड़े पड़े थे। इस घटना से पूरे गाँव में आतंक फैल गया। चोटी को भी रात भर नींद न आयी। वह उस बच्चे के बारे में ही सोचती रही। अंत में उसने निश्चय किया कि कल वह उस भालू को ही मार डालेगी।

उसने तो पहले कभी भालू देखा ही नहीं था। अतः उसे पता ही नहीं था कि वह होता कैसा है, कितना शक्तिशाली, कितना भयंकर होता है। अतः सुबह होते ही उसने नानी से पूछा, "नानी, भालू कैसा होता है?"
 
- "भालू तो बहुत लंबा-चौड़ा-तगड़ा होता है। उसके लंबे-लंबे काले बाल होते हैं। नाखून भी बहुत लम्बे और पैने होते हैं। दाँत भी बहुत बड़े बड़े होते हैं।" नानी ने थोड़ी डरावनी सी रूपरेखा बनाते हुए कहा।

परन्तु चोटी ऐसे कहाँ डरने वाली थी। उसने सोचा कि ज्यादा से ज्यादा जंगली बिल्ली से दो गुना बड़ा होता होगा। यदि एक छुरी से न मारा तो मेरी दूसरी छुरी नहीं झेल पायेगा। इसी निश्चय के साथ उसने तीनों छुरियाँ बेल्ट में लगाई और अवसर मिलते ही जंगल की ओर निकल गयी।

 पहले वह उसी जगह पहुँची जहाँ भालू सबसे पहले भोला को मिला था। काफी देर आसपास ढूँढा परन्तु वहाँ कोई नहीं था। दोपहर हो रही थी किन्तु चोटी को ना भूख थी ना प्यास.....किसी तरह वो भालू मिल जाए तो बस.......।

गाँव से काफी दूर एक छोटी सी नहर थी। ढूँढते-ढूँढते चोटी नहर के किनारे पहुँच गयी। रुक कर थोड़ा पानी पिया और फिर किनारे-किनारे चलने लगी। अभी वह थोड़ी दूर ही चली थी कि पास की झाड़ियों के पीछे से भालू का बच्चा निकला और चोटी पर झपट पड़ा। चोटी ने सावधानी से उसके वार को बचा दिया और फिर बड़ी स्फूर्ती के साथ एक छुरी जोर से उसकी ओर फैंक दी। निशाना तो अचूक था ही, छुरी सीधे भालू के बच्चे के सीने में बाँयी और चार-छः इंच गहरी घुस गई। बच्चा चीखा और धराशायी हो गया। चोटी ने उसे ध्यान से देखा और सोचा की यह भालू ही हो सकता है। परन्तु नानी तो बहुत बड़ा और तगड़ा बता रही थी! गाँव वाले भी बिल्कुल डरपोक हैं। ऐसे ही किसी से भी डरने लगते हीं।

अभी वह खड़ी यही सोच-विचार कर रही थी कि उसे एक भयानक गर्जना का स्वर सुनाई दिया। उसने नजर घुमाई तो क्या देखती है कि सामने से एक विशालकाय काली चट्टान सी आकृति उसी ओर दौड़ी चली आ रही है। अब चोटी को समझ आया कि जिसे उसने मारा है, वह तो भालू का बच्चा है। भालू तो सामने दौड़ा चला आ रहा है। वह आठ-दस कदम पीछे हट गई और निडरता पूर्वक एक छुरी निकालकर हाथ में ले ली। भालू अकर पहले अपने बच्चे के पास रुका। उसे सूँघा। किन्तु बच्चे को मरा हुआ देखकर वह जोर से गरजा,  फिर जैसे ही वह चोटी की ओर घूमा चोटी ने अपने हाथ की छुरी तेजी से उसकी ओर उछाल दी। अगले ही पल छुरी भालू की दाँयी जाँघ में घुस गयी। भालू दर्द के मारे जोर से सीखा और भूमि पर लौटने लगा। कुछ ही देर में छुरी जाँघ से निकल गई और घाव से खून की एक मोटी धार बह निकली। भालू गरजकर फिर से चोटी की ओर लपका। चोटी ने भालू का यह उग्र रूप देखा तो कुछ डर गई और तेजी से एक तरफ दौड़ पड़ी। भालू भी लंगड़ाता हुआ उसके पीछे भागा। चोटी को सामने एक पेड़ दिखाई दिया। वह जल्दी से उसकी और लपकी। परन्तु भालू उसके बिल्कुल निकट आ चुका था। उसने अपना पंजा फैलाकर चोटी पर पीछे से वार किया तो उसके फ्रॉक का पिछला हिस्सा जोकि उसके दौड़ने के कारण पीछे हवा में लहरा रहा था, पंजे में फँस गया। चोटी को जोर का झटका लगा। वह गिरने से बाल-बाल बची। कपड़े का जो टुकड़ा भालू के पंजे में आ गया था वह कुछ देर रुक कर उसी को भँभोड़ता रहा और फिर चोटी के पीछे दौड़ा। 
चोटी तब तक पेड़ पर चढ़ चुकी थी। भालू पेड़ के नीचे आकर जोर से गरजा और फिर पेड़ पर चढ़ने लगा। अब चोटी थोड़ी घबरायी। उसने नीचे देखा तो कम से कम पन्द्रह फुट की ऊँचाई थी। जहाँ से कूदने पर हड्डियों का कचूमर निकलना तो निश्चित था। 

उसने फिर साहस जुटाया और तीसरी छुरी हाथ में लेकर एक डाल पर बैठ गई। भालू धीरे-धीरे पेड़ पर चढ़ा और सूँघते-सूँघते उसी डाल की ओर बढ़ने लगा। जाँघ से अभी भी खून की मोटी धार बह रही थी। वह धीरे-धीरे सँभलता हुआ चोटी के बिल्कुल पास आ गया। चोटी उसकी आँखों में देख रही थी, जो उसे जो उस समय दहकते हुए लाल अंगारों जैसी प्रतीत हो रही थी। उसका हृदय बुरी तरह धड़क रहा था। छुरी उसने हाथों में कस ली। भालू ने आगे बढ़कर अपने भयानक जबड़े चोटी की ओर खोले तो चोटी थोड़ा ओर पीछे हट गयी। भालू ने जैसे ही जबड़ा पुनः चोटी की ओर बढ़ाया तो चोटी ने दोनों हाथों से छुरी का एक भरपूर वार उसकी खोपड़ी पर कर दिया।

खोपड़ी में छुरी लगते ही भालू एक बार फिर जोर से चीखा। उसके पैर उखड़ गए और वह चकरा कर नीचे गिर पड़ा। भालू के अचानक गिरने से पेड़ की डाल जोर से हिल गई, जिससे चोटी भी अपने आप को नहीं सँभाल पायी और वह भी नीचे गिरने लगी। उसकी आँखें बन्द हो गई थीं। अचानक उसे लगा जैसे वह किसी नरम गद्दे पर आकर गिरी हो। उसने हाथ से टटोला तो लगा जैसे नीचे लंबी लंबी नर्म घास है। आंखें खोलकर देखा तो चीख निकल गई.......वह ठीक भालू के ऊपर आकर गिरी थी। मारे दहशत के वह झटके से कई फुट ऊपर उछल पड़ी और तेजी से एक ओर भागी। परन्तु आँखों के आगे अँधेरा छा गया और वह चक्कर खाकर गिर पड़ी। 

चोटी को होश आया तो उसे फिर अपने सिर के नीचे वही नरम गद्दा सा अनुभव हुआ। वह जोर से चीख पड़ी.....उसी समय उसके कानों में नानी का प्यार भरा स्वर सुनायी पड़ा, - "चोटी!!!......आँखें खोल बिटिया.....।"
चोटी ने आँखें खोलीं तो देखा कि गाँव के अनेक लोग वहाँ खड़े हैं। सामने सूरज धीरे-धीरे अस्त हो रहा था। उसने गर्दन घुमायी तो देखा, नानी ने उसे अपनी गोद में लिटा रखा था।
-"नानी....." कहते हुए वह नानी के सीने से चिपक गई।
- "पगली, तुझे कुछ हो जाता तो......" नानी ने प्यार से  उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
- "कैसी बातें करती हो नानी.....खान दादा की छुरियों के होते वह भालू भला मेरा क्या बिगाड़ सकता था।" नानी की आंखों में छलक आए आँसुओं को पौंछते हुए चोटी ने कहा। 

खान दादा पास ही खड़े हुए थे। उन्होंने चोटी को गोद में उठा लिया और प्यार से पीठ सहलाते हुए बोले - 

- "बिटिया, जो काम आज तूने किया है, गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता था।"

कल्लू का छोटा बेटी मन्नू भी उस समय वहीं था। चोटी के पास आकर धीरे से बोला,"चोटी दीदी, चोटी दीदी...तुम्हे भालू से डर नहीं लगा?"
- "नहीं, बिल्कुल नहीं....." चोटी ने एकदम उत्तर दिया।
- "तो फिर अभी-अभी चीख क्यों रही थी......?" रामू ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
- "अरे रामू भैया, वो तो मैं तुम लोगों को डरा रही थी......" कहते हुए चोटी अपने उसी मस्ताने अंदाज में गाँव की ओर चल पड़ी। दूसरे सभी लोग भी उसके साथ हँसते हुए गाँव की ओर चल दिए।

Thursday, 5 January 2017

घर

वो घर अब कहाँ रहे
जिनमें जन्मा करतीं थीं
नित नई बुनावटें !
कुछ रिश्तों की
कुछ प्रेम की
कुछ लगन की
कुछ मिलन की
कुछ सबकुछ समेट कर
बन जातीं थीं ऊन की !

वो घर अब कहाँ रहे
जिनमें जन्मा करतीं थीं
अपनत्व की यादें !
कुछ भोर की
कुछ अँजोर की
कुछ राग की
कुछ अनुराग की
कुछ सबकुछ समेट कर
बन जातीं थीं परिवार की !

अब तो बच रह गईं हैं बस
चंद छत-ओ-दीवारें !
जहाँ चलती हैं बातें
कुछ विज्ञापनों की
कुछ माॅल की
कुछ नेताओं की
कुछ अभिनेताओं की
कुछ घुट-मिटकर बन जातीं हैं
बस................ 'बाजार की' !
निरी............... 'बाजार की' !!
केवल............. 'बाजार की' !!!


Monday, 24 October 2016

दीपावली की कहानी

आओ बच्चों तुम्हें सुनाऊँ
दीपावली की अमर कहानी।
सुनकर तुम ये मत कहना
यह तो भैया बहुत पुरानी।
दीपावली आती हर वर्ष नयी
नित नई है उसकी यह कहानी।

अयोध्या के थे राजा राम
वन में जाकर रहते थे।
संग सीता और लक्ष्मण भ्राता
वचन पिता का भरते थे।

लंका का था राजा रावण
था वह बडा वीर-अभिमानी।
स्वर्ग लोक के देवता सारे
महल में उसके भरते थे पानी।

एक दिवस की बात यह
पाकर वन में सिया अकेली।
छल से बिठा निज रथ में
ले गया मूर्ख-अज्ञानी।

क्रोध भड़क उठा राम-लखण का
बात जब उन्होंने सब जानी।
खींची डोर निज धनुषों की
रावण से लोहा लेने की ठानी।

राम-लखन दोऊ भ्राता
रावण की सेना अनजानी।
महावीर हनुमान मिले तब
सुग्रीव ने भी सहायता करने की मानी।

सुग्रीव था किष्कंधा का राजा
वानर सेना थी उसकी अति भारी।
नल-नील-अंगद-जाम्बवंत
योद्धा थे उसके बड़े बलवानी।

बात-बात में बना पुल सागर पर
हुई रावण को तब हैरानी।
समझाया उसको खूब सभी ने
पर बात ना उसने झुकने की मानी।

मचा घमाशान कई दिनों तक
मिटे योद्धा अनगिण बलिदानी।
मेघनाद-कुम्भकरण ने भी तो
खूब की वानर सेना की हानि।

पर राम-लक्ष्मण के बाणों ने
उनको भी गति दे डाली।
तब निकला किले से राजा-रावण
था वह खूब दंभी-अभिमानी।

राम-रावण संग्राम छिड़ा तब
तीनों लोक में थी लाचारी।
धरती कांपती अंबर डोलता
चलते थे जब उनके वज्र भारी।

एक बाण बडा पैना
जाकर लगा रावण की नाभि में।
मूर्छित होकर गिरा धूलि में
हुआ तत्काल राम को प्यारा।

थी वह तिथि दशमी की
जब वह महाबली दशानन हारा।
इसीलिए तो हमने तब से
इसे दशहरा के रूप में जाना।

चौदह वर्ष का वनवास निबाह तब
राम-लखन-सिया अयोध्या आये।
उनके स्वागत में ही तो
उस दिन थे सबने दीप जलाये।

राम-लखन और भरत-शत्रुघन
प्रजा वसियों ने गले लगाये।
थी कार्तिक आमावश्या उस दिन
जिसको अब हम दीपावली मनाऐं।

दीपावली है त्यौहार प्रेम का
त्याग- तपस्या और बलिदान का।
मंत्र जरा यह अपनाकर देखो
दीपावली होगा हर दिन जीवन का।

                    ***


Wednesday, 18 March 2015

नॉनस्टॉप-बचपन

ओए चल ना
खिली-खिली धूप में
छत पर बैठेंगे।
आसान में उड़ते
कबूतर को देखकर
सपने बुनेंगे।
रंग अगर चुक गए
तितली से ले लेंगे।

चल, सौंधी-सौंधी हवाओं में
मेंढ़ पर बैठेंगे।
खेत से तोड़कर
गन्ना चुसते
बातें घडेंगे।
आ,गन्ने की जड़ उछालकर
बेर तोड़ेंगे।

चल, हाथों में हाथ लेकर
खेतों में घूमेंगे।
नाली में चलते
ट्यूबवेल के पानी में
छपाछप खेलेंगे।
आजा,फूलों पर मँडराती
तितलियाँ पकड़ेंगे।

चल, मटर के खेत से
तोड़ फलियाँ खाएँगें।
चने की पत्तियों से
नरम-नरम डोडियों से
नमक चुराएँगे।
आ ना, मूली-शलगम उखाड़कर
चबा-चबाकर खाएँगें।

चल, पुआल की झोंपड़ी में
गुड़-रोटी खाएँगें।
दुम हिलाते टॉमी को
म्याऊँ-म्याऊँ बिल्ली को
छाछ पिलाएँगे।
आजा, मीठे पके गूलर से
जायका बढाएंगे।

चल, आम की ड़ाली पे
कोयल बनके कुहूकेंगें।
खेत के पानी में
बगुलों को देखकर
तालियाँ बजाएँगे।
आ, शीशम के नीचे से
मोरपंख खोजकर लाएँगें।

चल, लाल-लाल टेशू
झोली भर लाएँगें।
करौंदे के पेड़ से
सुनहरे-लाल-गुलाबी
करौंदे चुनकर लाएँगें।
आजा, ढाके के पत्ते में
पानी पियेंगे।

चल, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर
दौड़ लगाएँगे।
धूल के गुब्बार में
ऊँची उड़ती घास-पात में
सहम के बैठ जाएँगें।
आ, खेत में घुसी घसियारिन को
ढेला मार ड़राएँगें।

चल, आसमान में उड़ती
चील की परछाईं पकड़ेंगे।
भैंस के रैंकने की
दादा के खाँसने की
नकल बनाएँगें।
आजा, गैया के बछड़े से
दौड़ लगवाएँगें।

चल, भैंस की पूँछ पकड़ कर
तालाब पार लगाएँगे।
बचके माँ की झिड़की से
दादी की गोद में
जाके छुप जाएँगें।
आजा, भैया की कॉपी में
कबूतर बनाएँगें।

चल, बुलबुल के पास
मुँडेर पर बैठेंगे।
दीदी के झोले से
लंबा धागा लाकर
पतंग उड़ाएँगें।
वो देख कटी पतंग
आजा लूटकर लाएँगें।

चल, छुपकर-ढूँढकर
चोर-सिपाई खेलेंगें।
नीम तले चौपाल पर
सबको बुलाकर
हल्ला मचाएँगें।
थक गए अब बहुत
दादी कहानी सुनाओ ना........ नॉनस्टॉप

Tuesday, 9 September 2014

दुल्हन ही दहेज है

वर व कन्या दोनों पक्षों के लोग आमने-सामने विराजमान हैं। बीच में मेज फलों-मिष्ठानों से सजी है। दोनों पक्षों के चेहरों पर उल्लास स्पष्ट झलक रहा है। जिससे प्रकट होता है कि बात पक्की हो चुकी है। तभी कन्या का पिता थोड़े संकोच के साथ दबी सी जबान खोलता है-
-"देखिए, बाकी सब बातें तो हो ही चुकी हैं , अब अगर आप लेन-देन के बारे में भी थोड़ा..........।"
इससे पहले कि वर पक्ष की ओर से कोई कुछ बोले, लड़के ने शिष्टतापूर्वक निवेदन किया,
-"माफ कीजिएगा, लेन-देन से यदि आपका  मतलब 'दहेज' से है तो याद रहे मैं दहेज के नाम पर एक खोटा सिक्का भी अपने घर नहीं जाने दूँगा। हाँ आपकी बेटी के लिये आपके दिल में जो अरमान हों, उनमें मैं किसी प्रकार बाधक भी नहीं बनूँगा। बल्कि आप जो कुछ भी करेंगें उसे सम्मान सहित शिरोधार्य करूँगा।"
इस पर कन्या के पिता ने लड़के के माता-पिता की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो उन्होंने भी स्पष्ट सा उत्तर दिया कि जो कुछ उनके बेटे ने कहा, वही उनके भी शब्द हैं। साथ ही दूसरी कई दहेज विरोधी बातें भी सुना डालीं।
लड़के के ऐसे आदर्श वचन सुनकर कन्या पक्ष के सीने फूलकर चौगुने हो गए।
कहने का मतलब यह है कि सब-कुछ खुशी-खुशी तय हुआ और निश्चित समय पर वर पक्ष धूम-धड़ाके के साथ बारात लेकर कन्या पक्ष के द्वार पर जा पहुँचा। धूम-धड़ाका भी अज़ब ही था। बाराती हाथों में दहेज विरोधी नारे लिखे बैनर, तख्ती आदि पकड़े हुए थे। बैन्ड-बाजे पर भी हर संभव जगह दहेज विरोधी पोस्टर-स्टीकर आदि चिपके हुए थे। कुल मिलाकर पूरी बारात, बारात के बजाय कोई दहेज विरोधी रैली लग रही थी।
खैर इस अदभुत बारात की चर्चा के साथ-साथ सभी की जमकर खातिरदारी हुई और हँसी-खुशी सभी रस्में भी पूरी हो गईं । विदाई के समय माहौल में एक स्वाभाविक अवसाद सा छाया हुआ था। द्वार पर "दुल्हन ही दहेज है" "दहेज लेना-देना पाप है" "दहेज लेना बेटा बेचने के समान है" आदि-आदि दहेज विरोधी पोस्टरों, बैनरों से सजी गाड़ी तैयार खड़ी थी। दुल्हे राजा पास ही दोस्तों के साथ खड़े थे तथा दुल्हन रोते-सिसकते हुए अपने परिजनों से गले मिल-मिलकर विदाई ले रही थी। उसकी सिसकियों ने माहौल में कुछ ज्यादा ही उदासी बिखेर दी थी। तभी कन्या पक्ष के पंडित जी की आवाज़ सुनाई दी, -"अरे जल्दी करो भई, दुल्हन को गाड़ी में बिठाओ।"
  -"नहीं,........." अचानक दुल्हे राजा जोर चिल्लाए। क्षण भर पहले की प्रसन्नचित्त मुखमुद्रा अचानक पत्थर के समान दृढ़ता में परिवर्तित हो गई।
-"नहीं, मैं दुल्हन हरगिज नहीं ले जाऊँगा।"
दुल्हेराजा ने उसी दृढ़ता के साथ पुनः फुँफकारते हुए कहा तो जैसे एटम बम  का धमाका हो गया हो और फिर चारों ओर एक नीरव सन्नाटा छा गया। जैसा शायद परमाणु बम गिरने के बाद हिरोशिमा में छाया होगा।
दुल्हन की सिस्कियां गायब। क्षणभर पहले आँखों से अनवरत बह रहे आँसू ऐसे ही गायब हो गए जैसे वीडियो कैसेट प्ले बैक करने पर बाल्टी का पानी वापस नल में जा समाता है। सभी आवाक खड़े एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
कुछ क्षणों बाद थोड़ी खुसर-पुसर शुरू हुई तो कन्या के पिता ने साहस बटोर कर दुल्हे के पास जाकर घिघियाते हुए पूछा, -"यह क्या कह रहे हो बेटा, हमसे कुछ गलती हो गई हो तो.......।"
कहते-कहते उनकी सिसकी बँध गई।
-"देखिये, रोने-धोने की कोई जरूरत नहीं, मैंने पहले ही बड़े स्पष्ट रूप से आपसे कह दिया था कि मैं दहेज के नाम पर कुछ भी स्वीकार नहीं करूँगा।"
-"लेकिन बेटा, हमनें भी तो सबकुछ तुम्हारे कहे अनुसार ही तो किया है।" कन्या के पिता ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।
-"यह देखिए, इतने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है 'दुल्हन' ही 'दहेज' है। अब आप ही बताईये, आपने हमारा कहा कहां किया।" दुल्हे ने कार पर लगा बैनर दिखाते हुए उसी तीव्रता के साथ कहा।
दुल्हे के इन शब्दों को सुनकर सभी के दिमाग झन्ना उठे। परंतु किसी को नहीं सूझ रहा था कि उसे कैसे समझाएं। अचानक दुल्हन अपनी सखियों व अन्य लोगों को दूर धकेलते हुए दुल्हेराजा की ओर लपकी।फिर उसकी आँखों में आँखें डालकर सिंहनी की भाँति दहाड़ते हुए बोली, -"मैं कोई दहेज नहीं आपकी पत्नी हूँ।"
-"तो फिर आओ घर चलें। मैनें तो दहेज ले जाने से इन्कार किया था, पत्नी को थोड़े ही।" दुल्हे ने होठों पर शरारतपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए दुल्हन के कंधों पर हाथ रखकर प्यार से कहा।

Friday, 5 September 2014

टी'चरस डे

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलो बुक पढ़ आइन
फत्ते कहिन चलो बुक पढ़ आइन
हमऊं कहिन चलो बुक पढ़ आइन
सत्ते पढ़िन A बुक
फत्ते पढ़िन B बुक
हमऊं पढ़िन फेसबुक

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं माटसाब की सेवा करि आइन
फत्ते कहिन चलीं माटसाब की सेवा करि आइन
हमऊं कहिन चलीं माटसाब की सेवा करि आइन
सत्ते दबाईं A लैग
फत्ते दबाईं B लैग
हमऊं दबाईं टेटुआँ ऊंऊंऊंऊं

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं बधाई भेज आइन(माटसाब को)
फत्ते कहिन चलीं बधाई भेज आइन
हमऊं कहिन चलीं बधाई भेज आइन
सत्ते भेजीं SMS
फत्ते भेजीं E-Mail
हमऊं भेजीं बैरंग

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं माटसाब को कपड़े लिवा लाईं
फत्ते कहिन चलीं माटसाब को कपड़े लिवा लाईं
हमऊं कहिन चलीं माटसाब को कपड़े लिवा लाईं
सत्ते लिवाईं कुर्ता-पाजामा
फत्ते लिवाईं धोती
हमऊं लिवाईं लक्स कोजी(ये अंदर की बात है)

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं माटसाब को मिठाई खिलाईं
फत्ते कहिन चलीं माटसाब को मिठाई खिलाईं
हमऊं कहिन चलीं माटसाब को मिठाई खिलाईं
सत्ते खिलाईं रसगुल्ला
फत्ते खिलाईं इमरती
हमऊं खिलाईं भादियाया गुड़

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं माटसाब को घुमा देईं
फत्ते कहिन चलीं माटसाब को घुमा देईं
हमऊं कहिन चलीं माटसाब को घुमा देईं
सत्ते घुमाईं चौपाटी
फत्ते घुमाईं इंडिया गेट
हमऊं घुमाईं कान पकड़ के चूंऊंऊंऊंऊंईं

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं घंटा बजा आइन
फत्ते कहिन चलीं घंटा बजा आइन
हमऊं कहिन चलीं घंटा बजा आइन
सत्ते बजाईं A घंटा
फत्ते बजाईं B घंटा
हमऊं बजाईं दे घंटा अर दे घंटा अर धे घंटा.....

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं गुरु जी को सलाम बजा आइन
फत्ते कहिन चलीं गुरु जी को सलाम बजा आइन
हमऊं कहिन चलीं गुरु जी को सलाम बजा आइन
सत्ते करीं राम-राम
फत्ते करीं नमस्कार

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हमऊं करीं दंडवत :)

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं खिचड़ी बनाईं
फत्ते कहिन चलीं खिचड़ी बनाईं
हमऊं कहिन चलीं खिचड़ी बनाईं
सत्ते लाईं चावल
फत्ते लाईं दाल
हमऊं लाईं गठबंधन

एक रहन सत्ते
एक रहन फत्ते
एक रहन हम
सत्ते कहिन चलीं ब्लॉग लिखिन
फत्ते कहिन चलीं ब्लॉग लिखिन
हमऊं कहिन चलीं ब्लॉग लिखिन
सत्ते लिखिल A पोस्ट
फत्ते लिखिल B पोस्ट
हमऊं लिखिल  टी'चरस डे।